राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सौ वर्ष और युवा भारत

आज का युवा उद्देश्य खोजता है। शाखा उसे वही देती है स्वयं के विकास और राष्ट्र-निर्माण का संगम। खुले मैदान में खेल, व्यायाम, गीत और प्रार्थना ये सब केवल गतिविधियाँ नहीं, बल्कि आत्मा को गढ़ने वाले हैं। गुरुजी गोलवलकर जी कहना था “शाखा केवल व्यायाम या खेल का स्थल नहीं, यह वह साधना-पीठ है जहाँ से राष्ट्र के लिए जीने की प्रेरणा मिलती है।” समय पर पहुँचना जिम्मेदारी की शिक्षा है, खेल सहयोग और बंधुत

लखनऊ

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7:59 AM, Sep 30, 2025

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फीचर डेस्क

जनपद न्यूज़ टाइम्स


✍️ पवन शुक्ला (अधिवक्ता)
प्रभा की कोमल आभा जब धरती पर उतरती है, तो हृदय में नई चेतना और आशा का संचार करती है। जैसे प्रकाश अंधकार को हटाकर मार्ग दिखाता है, वैसे ही इतिहास में भी ऐसे क्षण आते हैं जो समाज को नई दिशा देते हैं। बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में भारत गुलामी की जकड़नों में था—राजनीतिक अधीनता, सामाजिक विखंडन और आत्मविश्वास की कमी से जूझता हुआ। ऐसे समय में नागपुर में विजयादशमी, 27 सितंबर 1925 को, डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार जी ने संघ की नींव रखी। इस दिन ही संघ ने पहली शाखा का आरंभ किया। यह केवल संगठन की कल्पना नहीं थी, बल्कि बिखरे समाज को जोड़ने और राष्ट्र को आत्मबल से भरने का संकल्प था। यह बीज आने वाले युवा भारत की उर्वर मिट्टी में अंकुरित हुआ और धीरे-धीरे वृक्ष बनकर समाज को छाया और शक्ति देने लगा। हेडगेवार जी का स्पष्ट वाक्य आज भी गूँजता है—“राष्ट्र के जागरण के लिए सबसे आवश्यक है—संगठन। संगठन से ही शक्ति का उदय होता है।”


 संगठन की ज्योति
संघ का उदय आकस्मिक नहीं, बल्कि उस पीड़ा से निकला संकल्प था जो गुलाम भारत की धड़कनों में गूँज रहा था। हेडगेवार जी ने अनुभव किया कि व्यक्ति अकेला कितना भी तेजस्वी हो, राष्ट्र का पुनर्जागरण तभी संभव है जब समाज संगठित और अनुशासित बने। यहीं से प्रकट हुआ स्वयंसेवक का विचार। स्वयंसेवक वह है जो स्वेच्छा से, बिना स्वार्थ या पुरस्कार की अपेक्षा के, राष्ट्र की सेवा के लिए स्वयं को समर्पित कर दे। यह केवल शब्द नहीं, बल्कि जीवन की साधना है। जैसे एक युवक सुबह शाखा में दंड-बैठकें लगाता है और शाम को बाढ़ग्रस्त गाँव में राहत बाँटता है दोनों ही क्षण एक ही भावना का विस्तार हैं।
इतिहास गवाह है विभाजन की त्रासदी, आपातकाल का अंधकार या आपदाओं की भीषण घड़ी—हर समय स्वयंसेवक निःस्वार्थ भाव से समाज के बीच खड़ा रहा। उनकी पहचान यही थी—“मैं भारत का स्वयंसेवक हूँ।” अटल बिहारी वाजपेयी जी ने संघ के महत्व को रेखांकित करते हुए कहा था—“संघ ने हमें यह सिखाया कि व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा से ऊपर उठकर राष्ट्र का हित सर्वोपरि है। यही संस्कार युवाओं को भविष्य के लिए तैयार करते हैं।”


 शिक्षा से संस्कार
संघ मानता है कि शिक्षा केवल ज्ञान नहीं, बल्कि जीवन-मूल्य भी दे। इसी विचार से विद्या भारती और शिशु मंदिरों की परंपरा खड़ी हुई। गोरखपुर का पहला सरस्वती शिशु मंदिर आज हजारों विद्यालयों का विशाल परिवार है। वर्तमान में विद्या भारती के अंतर्गत देशभर में लगभग 12,000 से अधिक विद्यालय संचालित हो रहे हैं। इनमें लगभग 35 लाख विद्यार्थी और 1.5 लाख से अधिक शिक्षक जुड़े हुए हैं। इसके अतिरिक्त 8,000 से अधिक गैर-औपचारिक शिक्षा केंद्र भी सक्रिय हैं। यह नेटवर्क न केवल शहरी क्षेत्रों तक सीमित है, बल्कि उत्तर-पूर्वी भारत और नक्सल प्रभावित अंचलों तक फैला हुआ है। असम, अरुणाचल, मणिपुर, झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे इलाकों में बड़ी संख्या में शिशु मंदिर और विद्या भारती विद्यालय कार्यरत हैं, जहाँ युवा पीढ़ी शिक्षा के साथ संस्कार भी अर्जित कर रही है।इन विद्यालयों में एक चित्र रोज़ सजीव होता है गणवेश में अनुशासित पंक्तियाँ, प्रार्थना के स्वर, खेलों में हँसी और कक्षाओं में संस्कारों से भरी शिक्षा। यही कारण है कि यहाँ सीखना केवल क्या पढ़ना है तक सीमित नहीं, बल्कि कैसा बनना है तक पहुँचता है। एक उल्लेखनीय प्रसंग झारखंड के एक विद्यालय का है, जहाँ विद्यार्थियों ने अपनी जेब खर्च से धन एकत्र कर पास के आदिवासी गाँव में पुस्तकालय स्थापित किया। बच्चों ने न केवल किताबें दान कीं, बल्कि स्वयं गाँव के बच्चों को पढ़ाने का बीड़ा भी उठाया। यह अनुभव उनके लिए केवल समाजशास्त्र का पाठ नहीं था, बल्कि “समाज सेवा” का जीवंत अभ्यास था।वर्तमान संघ प्रमुख डा. मोहन भागवत जी का कथन यहाँ सार्थक है—“यदि शिक्षा संस्कार के साथ हो, तो वही राष्ट्र को आगे बढ़ाती है।”


 शाखा का आकर्षण
आज का युवा उद्देश्य खोजता है। शाखा उसे वही देती है स्वयं के विकास और राष्ट्र-निर्माण का संगम। खुले मैदान में खेल, व्यायाम, गीत और प्रार्थना—ये सब केवल गतिविधियाँ नहीं, बल्कि आत्मा को गढ़ने वाले संस्कार हैं। गुरुजी गोलवलकर जी कहना था—“शाखा केवल व्यायाम या खेल का स्थल नहीं, यह वह साधना-पीठ है जहाँ से राष्ट्र के लिए जीने की प्रेरणा मिलती है।” समय पर पहुँचना जिम्मेदारी की शिक्षा है, खेल सहयोग और बंधुत्व का अभ्यास है, और प्रार्थना आत्मा और राष्ट्र के बीच संवाद है।
आज RSS का संगठन विस्तार जिस तीव्रता से हो रहा है, वह शाखा की शक्ति और युवाओं की भागीदारी का सजीव प्रमाण है। मार्च 2025 तक भारत में कुल 83,129 शाखाएँ बताई गई हैं, जिनमें 51,710 दैनिक और 21,936 साप्ताहिक शाखाएँ शामिल हैं—पिछले वर्ष की तुलना में लगभग दस हज़ार शाखाएँ अधिक जुड़ी हैं। इसके अतिरिक्त लगभग 32,147 मिलन (साप्ताहिक बैठकें) और अन्य मण्डल स्तर की मिलन-प्रक्रियाएँ सक्रिय हैं। ग्रामीण क्षेत्र में भी यह विस्तार उल्लेखनीय है। लगभग 58,981 ग्रामीण मंडलों में शाखाएँ संचालित हो रही हैं, जिनमें 30,770 दैनिक शाखाएँ और लगभग 9,200 साप्ताहिक शाखाएँ शामिल हैं।
पथ संचलन आज शाखाओं का वह उत्सव है जिसमें युवक अनुशासन, एकता और शक्ति का संदेश जन-मानस को देते हैं। गणवेशधारी स्वयंसेवक जब सैकड़ों-हजारों की संख्या में एक लय और अनुशासन के साथ पंक्तिबद्ध चलते हैं, तो यह केवल मार्च नहीं होता, बल्कि समाज को दिया गया संदेश होता है—युवा संगठित हैं और राष्ट्र-निर्माण के लिए तत्पर हैं। इस वर्ष नागपुर सहित अनेक नगरों में हजारों स्वयंसेवकों का पथ संचलन हुआ, जिसने जनता को अनुशासन, एकता और समर्पण का सजीव दृश्य दिखाया। शाखा में गाए जाने वाले गीत और बजने वाला घोष (वाद्य-दल) युवाओं में नई ऊर्जा भर देता है। गीतों की पंक्तियाँ राष्ट्रप्रेम, त्याग और नवयुवकों के उत्साह को एक दिशा देती हैं। जैसे जब स्वर गूँजता है—“मन समर्पित तन समर्पित और यह जीवन समर्पित, चाहता हूँ मातृ-भू तुझको अभी कुछ और भी दूँ ॥” तो यह केवल गान नहीं, बल्कि मातृभूमि के चरणों में अर्पण की घोषणा बन जाता है। ऐसे गीत और घोष की ध्वनि युवाओं को रोमांचित करती है और समाज को यह सशक्त संदेश देती है कि राष्ट्र की धड़कन युवा ही हैं। यही शाखा वह पाठशाला है, जहाँ से अनेक सेवक जीवन के हर क्षेत्र में निकले और उन्होंने यह साबित किया कि राजनीति हो या समाजसेवा—संघ के संस्कार उनके पथप्रदर्शक बने।

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 चुनौतियाँ और आह्वान
शताब्दी का यह पर्व केवल स्मरण नहीं, बल्कि भविष्य का संकेत है। चुनौतियाँ कम नहीं—वैश्वीकरण की आँधी, उपभोक्तावाद की चकाचौंध, तकनीक का दबाव और सांस्कृतिक विघटन। परंतु संघ का इतिहास बताता है कि हर संकट अवसर बन सकता है। आपातकाल में दीपक जले, विभाजन के समय सेवा की ज्योति बुझने नहीं दी गई, आपदाओं में मानवता की डोर थामी गई। हेडगेवार जी का कथन आज भी प्रखर है—“राष्ट्र के जीवन में जो भी संकट आए, संगठित समाज उसका समाधान खोज ही लेगा।” डा. मोहन भागवत जी ने संघ को आधुनिक समय की माँगों के अनुरूप ढाला। डिजिटल माध्यमों पर संवाद, युवाओं के लिए विशेष नेतृत्व प्रशिक्षण, और सामाजिक सरोकारों में सक्रिय भागीदारी—ये सब उनके नेतृत्व में और सशक्त हुए हैं। उन्होंने स्पष्ट कहा है—“आज का स्वयंसेवक आईटी, विज्ञान और नई तकनीक में दक्ष हो, पर उसकी आत्मा भारतीय संस्कृति से जुड़ी रहे—यही युवा भारत की शक्ति है।”
यह शताब्दी केवल संघ का पर्व नहीं, बल्कि युवा भारत का आह्वान है। जब संगठन, सेवा और संस्कार की शक्ति युवा हाथों में आती है, तब इतिहास की नई दिशाएँ खुलती हैं। गुरुजी गोलवलकर जी ने कहा था— “युवक यदि राष्ट्र के साथ खड़ा हो जाए, तो भविष्य कोई रोक नहीं सकता।” यह वाक्य केवल एक विचार नहीं, बल्कि आने वाले कल का ध्वज है। और यही भाव इन पंक्तियों में भी झलकता है— “निर्माणों के पावन युगमे हम चरित्र निर्माण न भूले, स्वार्थ साधना की आंधीमे वसुधा का कल्याण न भूले ॥”
जब शाखा का गीत मैदान में गूँजता है, तो भारत का युवा यह अनुभव करता है कि राष्ट्र निर्माण की नींव केवल शक्ति पर नहीं, बल्कि शक्ति के साथ-साथ चरित्र और सेवा पर भी टिकी होती है। यही संयोजन उसे साधारण से असाधारण बनाता है और उसके भीतर वह चेतना जगाता है जो समय की राहों को आलोकित करती है। इस युग की पुकार यही है—अपनी ऊर्जा को केवल व्यक्तिगत सफलता तक सीमित मत करो, उसे मातृभूमि के पथ पर अर्पित करो। जब युवा आगे बढ़ता है, तो इतिहास की दिशा बदलती है; और जब वह राष्ट्र-निर्माण का संकल्प लेता है, तो समाज का वर्तमान और आने वाला कल दोनों ही आलोकित हो उठते हैं। और अंत में वही भाव, जो हर स्वयंसेवक की प्रार्थना में गूँजता है—“नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे।”
 (लेखक उच्च न्यायालय, लखनऊ में राज्य विधि अधिकारी हैं और युवा भारत पर सक्रिय लेखन करते हैं।)

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पवन शुक्ला (अधिवक्ता)

 

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