“भारतीय जीवन में मिथक की उपादेयता” का विश्लेषणात्मक अध्ययन पर......
रामजी प्रसाद "भैरव" का यह ललित निबंध भारतीय समाज, संस्कृति और आस्था में मिथक (myth) की भूमिका और महत्त्व पर गहन विमर्श प्रस्तुत करता है। भैरव जी के अनुसार, भारत में मिथकीय ग्रंथों और चरित्रों को लेकर मतभेद अवश्य हैं—कुछ उन्हें सत्य मानते हैं, कुछ कल्पना—परंतु इनका स्थायी आकर्षण मानव-चेतना की गहराई से जुड़ा हुआ है।

रामजी प्रसाद "भैरव"
1:06 PM, Nov 3, 2025
*रामजी प्रसाद "भैरव" के ललित निबन्ध
—गोलेन्द्र पटेल (युवा कवि-लेखक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक चिंतक)
संक्षिप्त सूत्र में — “मिथक = मानव कल्पना की पहली उड़ान + सभ्यता की स्मृति + संस्कृति का जीवंत इतिहास + आस्था का आधार।”
मिथक एक पारंपरिक कथा है जो देवी–देवताओं, अलौकिक घटनाओं और मानव–जीवन के रहस्यों से जुड़ी होती है।
रामजी प्रसाद "भैरव" का यह ललित निबंध भारतीय समाज, संस्कृति और आस्था में मिथक (myth) की भूमिका और महत्त्व पर गहन विमर्श प्रस्तुत करता है। भैरव जी के अनुसार, भारत में मिथकीय ग्रंथों और चरित्रों को लेकर मतभेद अवश्य हैं—कुछ उन्हें सत्य मानते हैं, कुछ कल्पना—परंतु इनका स्थायी आकर्षण मानव-चेतना की गहराई से जुड़ा हुआ है।
मिथक को भैरव जी मनुष्य के विकसित होते मस्तिष्क की पहली उड़ान मानते हैं—वह युग जब मनुष्य गुफाओं में रहता था और अपनी भावनाएँ चित्रों या कल्पनाओं से व्यक्त करता था। यह प्रारंभिक मानसिक अभिव्यक्ति ही आगे चलकर मिथकीय कथाओं में रूपांतरित हुई। इसलिए, मिथक न तो मिथ्या हैं, न मात्र कल्पना; वे मानव अनुभव का सांस्कृतिक दस्तावेज हैं।
भैरव जी ने आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की उक्ति उद्धृत की है—“मिथक अनंत अनुभवों का विश्लेषण है।” वे बताते हैं कि मिथक सभ्यता के विकास से पहले की अवस्था में जन्मे और समय के साथ भाषा, धर्म, कला और साहित्य के माध्यम से रूपांतरित होते रहे। फ्रायड के अनुसार, मिथक इच्छापूर्ति का विधान हैं, जबकि अन्य विद्वान उन्हें आदिम यथार्थ मानते हैं।
एक लोकप्रसंग के माध्यम से लेखक यह स्पष्ट करते हैं कि मिथकीय घटनाओं को केवल सुनना पर्याप्त नहीं; उन्हें उनके कालखंड के संदर्भ में “गुनना” आवश्यक है। यही अभ्यास मिथक को पुनर्पाठ के रूप में जीवित रखता है। इसलिए हर बार मिथक को पढ़ना एक नया बोध देता है।
भारत में मिथक लोकमानस में इतने गहरे बसे हैं कि वे बचपन की मौखिक परंपरा से जीवन का अंग बन जाते हैं। पीढ़ियाँ बदलती हैं, पर मिथक का आकर्षण नहीं घटता। राम और कृष्ण जैसे चरित्रों के बार-बार पुनर्लेखन में यह “नूतनता में प्राचीनता” दिखाई देती है।
