गप्पबाजी का मसला - रामजी प्रसाद " भैरव " ललित निबन्ध
मजेदार बात यह है कि पहले पहल गपोरी से मेरी मुलाकात तब हुई , जब मैं कक्षा आठ का विद्यार्थी था । वह शिक्षक के रूप में पढ़ाने आये थे । उनका एक तकिया कलाम था । उर्दी का भाव , बनउर छह सेर । पढ़ाते पढ़ाते जब वे यह तकिया कलाम बोलते , हम बच्चे हँस पड़ते । उनसे पढ़ने में बड़ा मजा आता । वे गणित पढ़ाते थे । वैसे तब से आज तक गणित में फिसड्डी ही रहा । लेकिन उनका तकिया कलाम आज भी याद है । उस समय बचपन में यह बात कहाँ स
ललित निबंध

रामजी प्रसाद "भैरव"
10:44 AM, Sep 11, 2025
आज मन कर रहा है गप्प लड़ाने का , आइये , चलकर कहीं गप्प लड़ाया जाए । वैसे मैं कोई नया और पुण्य का काम नहीं कर रहा हूँ । मैं तो वही कर रहा हूँ , जो हमारे पुरखों ने किया । फर्क बस इतना है , आज का आदमी गप्प लड़ाने की बजाए मोबाइल में घुसा रहता है , और कहता है पादने की फुर्सत नहीं है । अब फुर्सत नहीं है तो अवसाद है । टिकिया पर टिकिया खाये जा रहा है , जिंदगी झंड किये जा रहा है । पहिले के लोग थे , कि गप्प विधान के सजग सिपाही । रोग सोक तो पूछने नहीं आता था । आये भी तो कैसे , इन गपोरियों के मुँह कौन लगे । निठल्ला गिरी को दूर से सलाम । सबरे सबरे शुरू हो जायेंगे , तो दिन भर में कितनी गप्पें मारेंगे , इसका कोई हिसाब नहीं । भारत में इन गपोरियों की संख्या बिना गिनती के पायी जाती है , पर पायी जाती है जरूर । मुझे लगता बड़े बड़े राजा और महाराजा भी अपने दरबार में गपोरी रखते थे , उनका काम केवल गप्प सुनाना होता था । गप्प बेकार की चीज नहीं है । उसमें ज्ञान और मनोरंजन दोनों सन्नहित होता है । गप्प मारने वाले आत्म विश्वास से लबरेज रहते हैं । गप्प झूठ नहीं होता । गप्प एक शैलीगत विधान है । गप्पबाज सामने वाले को विश्वास से बांध लेते थे । फिर नमक मिर्च लगा कर ऐसे प्रस्तुत करते थे , जैसे सब सच ही है ।
मजेदार बात यह है कि पहले पहल गपोरी से मेरी मुलाकात तब हुई , जब मैं कक्षा आठ का विद्यार्थी था । वह शिक्षक के रूप में पढ़ाने आये थे । उनका एक तकिया कलाम था । उर्दी का भाव , बनउर छह सेर । पढ़ाते पढ़ाते जब वे यह तकिया कलाम बोलते , हम बच्चे हँस पड़ते । उनसे पढ़ने में बड़ा मजा आता । वे गणित पढ़ाते थे । वैसे तब से आज तक गणित में फिसड्डी ही रहा । लेकिन उनका तकिया कलाम आज भी याद है । उस समय बचपन में यह बात कहाँ समझ में आती । बस उनके कहने की शैली पर हम मुग्ध थे । अर्थ के चक्कर में कभी नहीं पड़ा । क्यों कि अर्थ के चक्कर में अनर्थ होने की संभावना बड़ी प्रबल होती है । एक प्रसंग याद आ रहा है । एक गणित के मास्टर साहब थे । एक हिंदी की कक्षा में पढ़ाने आये । उस दिन हिंदी वाले मास्टर साहब किसी वजह से नहीं आये थे । उन्होंने बच्चों से पूछा -" भाई बताओ क्या पढ़ना है । " बच्चों ने कहा " सर सूर दास जी पद पढ़ना है । " उन्होंने एक लड़के को खड़ा कर पढ़वाया ।
ऊधौ , मन न भये दस बीस ।
एक हुतो सो गयो स्याम संग , को अवराधे ईश ।।
मास्टर साहब चिल्लाये -" गलत पढ़ रहे हो । "
उन्होंने दूसरे , तीसरे , चौथे लड़के से पढ़वाया । सब गलत पढ़ रहे थे । उनका माथा चकराया । क्या बात सब के सब गलत क्यों पढ़ रहे हैं । उन्होंने डाँटा तो लड़कों ने बताया किताब में यही लिखा है । उन्होंने कहा किताब ही गलत है । उन्होंने बच्चों को समझाया । देखो , कुल बीस मन थे । एक स्याम संग चले गए । तो बीस में से एक घटा दो , उन्नीस बचेगा । किताब छापने वाले ने उन्नीस की जगह ईश लिख दिया है । जो सरासर गलत है ।
