दीपावली और भारतीय चेतना का संवाद
धर्मशास्त्रों में दीपक को “स्वयं जलकर दूसरों को प्रकाश देने” का प्रतीक माना गया है। यह जीवन का दर्शन है कि हम अपने कर्मों से समाज को आलोकित करें। आज जब भौतिकता की चकाचौंध में आत्मा की रोशनी धुंधली पड़ रही है, तब दीपावली का यह संदेश और भी प्रासंगिक हो जाता है।
लखनऊ

10:30 AM, Oct 20, 2025
फीचर डेस्क
जनपद न्यूज़ टाइम्स
✍️ डॉ. रविकांत तिवारी
भारत की सांस्कृतिक चेतना में दीपावली केवल एक पर्व नहीं, बल्कि आत्मजागरण का निमंत्रण है। यह वह क्षण है जब मिट्टी का दीपक केवल तेल से नहीं, हमारी श्रद्धा, करुणा और विवेक से जलता है। यह पर्व हमें स्मरण कराता है कि अंधकार केवल बाहर नहीं होता वह भीतर भी होता है और सच्चा उत्सव तब होता है जब हम उस भीतरी अंधकार पर विजय प्राप्त करें।
रामायण की कथा में श्रीराम का अयोध्या लौटना केवल एक राजकुमार की वापसी नहीं, बल्कि धर्म, मर्यादा और करुणा की पुनर्स्थापना थी। नगरवासियों ने दीप जलाकर उस उजास का स्वागत किया जो अन्याय और अहंकार के अंत का प्रतीक था। दीपावली उसी स्मृति की लौ है एक लौ जो हर युग में सत्य की राह दिखाती है।
भारतीय दर्शन में “प्रकाश” केवल ज्योति नहीं, चेतना है। “तमसो मा ज्योतिर्गमय” यह वेदों की पुकार है, जो दीपावली के हर दीप में प्रतिध्वनित होती है। जब हम एक दीप जलाते हैं, तो वह केवल अंधकार को नहीं चीरता, वह हमें भीतर झाँकने का साहस देता है।
धर्मशास्त्रों में दीपक को “स्वयं जलकर दूसरों को प्रकाश देने” का प्रतीक माना गया है। यह जीवन का दर्शन है कि हम अपने कर्मों से समाज को आलोकित करें। आज जब भौतिकता की चकाचौंध में आत्मा की रोशनी धुंधली पड़ रही है, तब दीपावली का यह संदेश और भी प्रासंगिक हो जाता है।
यह पर्व केवल श्रीराम से नहीं, बल्कि भारत की विविध धार्मिक परम्पराओं से जुड़ा है। जैन परम्परा में यह भगवान महावीर के निर्वाण का दिन है, सिख परम्परा में ‘बंधी छोड़ दिवस’ है जब गुरु हरगोबिन्द सिंह जी ने बंदियों को मुक्त किया। यह विविधता ही भारत की आत्मा है एक दिन, अनेक अर्थ, एक ही संदेश: मुक्ति, प्रकाश और करुणा।
लक्ष्मी जी की आराधना तभी सार्थक होती है जब वह विवेक और सदाचार से जुड़ी हो। गणेश जी की पूजा पहले होती है ताकि बुद्धि और विवेक से धन का मार्ग प्रशस्त हो। यह संतुलन ही भारतीय संस्कृति की पहचान है जहाँ धन, धर्म और ज्ञान एक साथ चलते हैं।
आज जब सोशल मीडिया की कृत्रिम रोशनी में असली उजास खोता जा रहा है, तब दीपावली को आत्मसजगता का पर्व बनाना आवश्यक है। यह पर्व हमें सिखाता है कि सच्चा आनंद दिखावे में नहीं, बल्कि साझा करने में है। जब हम किसी निर्धन को मिठाई देते हैं, किसी अकेले को दीप जलाकर अपनत्व देते हैं तब हम असली दीपावली मनाते हैं।
दीपावली का सामाजिक पक्ष भी उतना ही महत्वपूर्ण है। जब हम अपने घर के बाहर दीप रखते हैं, तो यह संदेश देते हैं “यह प्रकाश सबका है।” एक दीप दूसरे दीप से जलता है और दोनों की ज्योति बढ़ती है यही सहयोग, यही मानवता का दर्शन है।
हर पर्व आत्मनिरीक्षण का अवसर होता है। दीपावली पर हमें यह देखना चाहिए कि हमारे भीतर का ‘राम’ कितना जागृत है और ‘रावण’ कितना जीवित। रावण केवल लंका में नहीं था वह हमारे भीतर भी है, जब हम क्रोध, लोभ और अहंकार से संचालित होते हैं। दीपावली तभी सच्ची होगी जब हम उस रावण को भीतर से हराएं।
आज का युग हमें यह भी सिखाता है कि प्रकाश केवल दीपों में नहीं, विचारों में भी चाहिए। शिक्षक, किसान, सैनिक, समाजसेवी जो अपने कर्मों से दूसरों का जीवन रोशन करते हैं वही इस युग के दीपक हैं।
दीपावली केवल पूजा का नहीं, कर्म का पर्व है। जब हम किसी के जीवन में आशा की लौ जलाते हैं, तब हम दीपावली को जीवंत बनाते हैं। यह पर्व हमें सिखाता है कि रोशनी का मूल्य तभी है जब हम अंधकार को पहचानें। हर रात के बाद सवेरा आता है यही विश्वास दीपावली का प्राण है।
आइए, इस दीपावली हम यह संकल्प लें:जहाँ अंधकार है, वहाँ एक दीप जलाएँ।जहाँ निराशा है, वहाँ एक आशा जगाएँ।जहाँ विभाजन है, वहाँ एकता का प्रकाश फैलाएँ।जहाँ मनुष्यता सोई है, वहाँ धर्म की लौ जलाएँ।
दीपावली का सार यही है कि जीवन चाहे जितना भी कठिन हो, दीपक की तरह मुस्कुराते रहो, जलते रहो और रोशन करते रहो। तमसो मा ज्योतिर्गमय यही भारत की आत्मा है, यही दीपों की आत्मा है।
( लेखक राष्ट्रीय, सामाजिक और सांस्कृतिक मुद्दों पर लेखन करने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
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डॉ. रविकांत तिवारी (राष्ट्रवादी विचारक व स्तंभकार)
