छठ पूजा - आस्था, अनुशासन और आत्मशक्ति का सूर्य उत्सव
छठ पूजा का सबसे बड़ा संदेश है प्रकृति के प्रति आभार। यह पर्व हमें याद दिलाता है कि मनुष्य का अस्तित्व सूर्य, जल, वायु और पृथ्वी के बिना अधूरा है। जब हजारों लोग नदियों और तालाबों के किनारे एक साथ सूर्य को प्रणाम करते हैं, तो यह केवल धार्मिक दृश्य नहीं, बल्कि पर्यावरणीय एकता की मिसाल होती है।
उत्तर प्रदेश

9:57 AM, Oct 27, 2025
फीचर डेस्क
जनपद न्यूज़ टाइम्स
✍️ डॉ. रविकांत तिवारी
भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी पहचान यह है कि यहाँ धर्म और जीवन एक-दूसरे से अलग नहीं, बल्कि एक-दूसरे में रचे-बसे हैं। हमारे पर्व केवल अनुष्ठान नहीं, बल्कि जीवन के गहरे अर्थों की अनुभूति हैं। इन्हीं में से एक है छठ पूजा जो सूर्य उपासना, पर्यावरण चेतना और आत्मानुशासन का अद्भुत संगम है। यह पर्व केवल बिहार या पूर्वांचल का नहीं, बल्कि सम्पूर्ण भारतीयता का प्रतीक बन चुका है।
छठ महापर्व का इतिहास अत्यंत प्राचीन है। वेदों में ‘सूर्य नारायण’ को साक्षात् जीवनदाता कहा गया है। ऋग्वेद के मंत्रों में सूर्य को ‘सविता देवता’ कहा गया है जो समस्त प्राणियों में चेतना का संचार करते हैं। छठ पूजा उसी वैदिक सूर्य परंपरा की जीवित कड़ी है। भारतीय जीवन में सूर्य न केवल प्रकाश का स्रोत हैं, बल्कि प्रेरणा, आरोग्य और आशा का प्रतीक भी हैं। जब व्रती शाम के झुटपुटे में डूबते सूर्य को अर्घ्य देती हैं और प्रातः कालीन प्रकाश में उगते सूर्य को नमन करती है, तो यह क्षण केवल पूजा का नहीं, बल्कि प्रकृति और जीवन के मिलन का क्षण होता है।
छठ पूजा की सबसे बड़ी विशेषता इसका अनुशासन और पवित्रता है। चार दिनों तक चलने वाले इस महाव्रत में व्रती स्नान, ध्यान, उपवास और सूर्य अर्घ्य की प्रक्रिया से गुजरता है। इस दौरान शरीर की शुद्धि के साथ-साथ मन का भी परिशोधन होता है। ‘नहाय-खाय’ से शुरू होकर ‘खरना’, ‘संध्या अर्घ्य’ और ‘प्रातः अर्घ्य’ तक का यह क्रम जीवन को तपस्या में ढाल देता है। व्रती न तो नमक लेते हैं, न तेल, न विलासिता की कोई वस्तु। यह संयम, आस्था और आत्मबल की चरम परीक्षा होती है।
छठ व्रत में स्त्री-शक्ति की भूमिका सबसे प्रमुख होती है। माताएँ, बहनें और बेटियाँ न केवल अपने परिवार के कल्याण के लिए यह व्रत रखती हैं, बल्कि पूरे समाज के लिए भी मंगल की कामना करती हैं। यह व्रत स्त्री की सहनशक्ति, आस्था और आध्यात्मिक सामर्थ्य का प्रतीक बन चुका है। यह वह क्षण होता है जब एक साधारण महिला देवी का रूप धारण कर लेती है अपने तप, संयम और श्रद्धा से संपूर्ण समाज को ऊर्जा देती है।
छठ पूजा केवल पूजा नहीं, यह लोकसंस्कृति का उत्सव है। गाँवों के घाटों से लेकर शहरों की सड़कों तक इसकी गूँज सुनाई देती है। मिट्टी के दीयों की कतारें, गन्ने के बांस, केले के पत्ते, ठेकुआ की सुगंध और लोकगीतों की मधुर धुनें सब मिलकर ऐसा वातावरण बनाती हैं जो मन को लोक की मिट्टी से जोड़ देता है। बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश और झारखंड के लोकगीतों में छठ का सौंदर्य अनोखा है। जब महिलाएँ गाती हैं केलवा जे फरेला घवद से, ओ पियवा, केलवा जे फरेला...तो उसमें केवल भक्ति नहीं, बल्कि प्रेम, ममता और जीवन के संघर्षों में भी मुस्कराने की कला छिपी होती है। यह गीत लोकजीवन की उस संवेदना को व्यक्त करते हैं, जहाँ स्त्री अपनी श्रद्धा से ब्रह्म को भी झुका देती है।
